संप्रदायिकता पर एक कविता जो समाज को जगा दे
खून की प्यासी भीड़ मेरी तरफ दौड़ती चली आ रही है शायद वह किसी गलतफहमी की शिकार है जो मुझे गलत समझ रही है
''हां ये वही भीड़ है''
'' जिस पर बल तो है पर शायद दिमाग नहीं ''
माना मैंने इस भीड़ के मन में गलतफहमियां बन गई होंगी या किसी के सहारे गलतफहमियां मन में भरी गई होंगी जो ये मेरे खून के प्यासे लगते हैं।
उस भीड़ को जो चाहिए था वह शायद उसने हासिल कर लिया " वो चीज थी मेरी जान"
चलो मैं चलता हूं अपनी जान खोकर इस बे दिमाग भीड़ के हाथों अब यह खबर उन तक पहुंच चुकी होगी अब जान का सौदा करने कुछ मेरी भी आवाज उठाएंगे अगर मैं बिचारे मजहब का हुआ तो मेरी आवाज जोर-शोर से खबर हर अखबार में आएगी अगर मैं किसी बेचारे मजहब का इंसान नहीं हुआ तो क्या मेरी बात दबा दी जाएगी?
" वही बेचारा मजहब जो बेचारा नहीं है"
अगर खुदा मुझसे पूछे कि तेरी जान का कसूरवार कौन है किस को सजा दूं तू बता मुझे??? तो.....
मैं तो कसूरवार उन सभी को समझता हूं जो इंसान के मरने पर मजहब के नाम पर इंसाफ चाहते हैं।
मैं राम हूं या रहीम क्या फर्क पड़ता है मैं इंसान तो था। इस जान के बदले, इस मरे हुए इंसान के बदले, इंसाफ तुमने देर, हल्ला गुल्ला क्यो पहले किया ,
अफसोस होता है सोच कर काश मैं मरता नहीं अगर मैं मरता नहीं तो शायद तुम मजहब के नाम पर फिर से लड़ते नहीं।
और
जिस कस्बे से मेरा जनाजा गुजर रहा था उस कस्बे में दोनों मजहब के लोग शामिल हैं जो मेरे जनाजे में शामिल है
हां यह सच है कि मेरी मौत के गम का पानी सभी की आंखों में है मैं राम हूं या रहीम क्या फर्क पड़ता है इंसान तो था।
"सुना था मां की जुबान से जहां चार बर्तन होते हैं वहां आवाज तो होनी लाजमी है " मगर छोटी मोटी टकरा ने बढ़ा मोड़ ले लिया मेरी जान का आरोप किसी एक के सर तुमने क्यों थोप दिया।
"क्यों नहीं छपा उस अखबार की सुर्खियों में कि मेरी जान अपराधी भीड़ ने ली है किसी मजहब ने नहीं अफसोस होता है सोच कर काश मैं मरा नहीं होता मैं मरा नहीं होता तो तुम फिर से मजहब के नाम पर लड़ते नहीं
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